अमरीकी रक्षामंत्री जेम्स मैटिस और विदेश मंत्री माइक पोम्पियो गुरुवार को भारत दौरे पर पहुंच रहे हैं. वो भारत की रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से बात करेंगे.
बीबीसी संवाददाता विकास पांडेय बता रहे हैं कि यह वार्ता दोनों देशों के लिए क्यों अहम है.
इस वार्ता को मीडिया में 2+2 डायलॉग कहा जा रहा है. अमरीका और भारत की यह बातचीत दोनों देशों के बीच हालिया तनाव के बाद हो रही है.
पहले ये मुलाकात अप्रैल में होनी तय हुई थी लेकिन तभी अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने तत्कालीन विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन को पद से हटा दिया.
इसके बाद जुलाई में एक बार फिर यह बातचीत स्थगित हो गई और भारतीय विदेश मंत्रालय ने इसके पीछे ‘नज़रअंदाज’ न की जा सकने वाली वजहें बताईं. लेकिन इसके बाद से काफ़ी कुछ बदल चुका है.
न्यू वर्ल्ड ऑर्डर
अमरीका ने भारत और रूस के बीच होने वाले रक्षा सौदे को लेकर चेतावनी दी है. इसके अलावा भारत को ईरान से तेल का आयात करने को लेकर भी आगाह किया है. फ़िलहाल अमरीका ने रूस और ईरान दोनों पर ही पाबंदियां लगा रखी हैं.
दूसरी तरफ़, ट्रंप ने जब प्रधानमंत्री मोदी के उच्चारण के लहजे का मज़ाक उड़ाया तो वो भारतीय राजनायिकों को पसंद नहीं आया. और भारतीय राजनयिक ट्रंप के अप्रत्याशित रवैये की वजह से थोड़े चौकन्ने भी रहते हैं.
जॉर्ज बुश और बराक ओबामा के शासनकाल में भी भारत और अमरीका के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ते रहे हैं. हालांकि ट्रंप शासनकाल में दोनों देशों के रिश्तों के बारे में ऐसा कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी.
‘कंट्रोल रिस्क्स कंसल्टेंसी’ में असोसिएट डायरेक्टर (भारत और दक्षिण एशिया) प्रत्युष राव का मानना है कि भारत को बातचीत में ‘सतर्क आशावाद’ वाला रवैया अपनाने की ज़रूरत है.
प्रत्युष ने बीबीसी से बातचीत में कहा, “भारत ने ओबामा और बुश प्रशासन में अमरीका की तरफ़ से कई सुविधाओं का लाभ उठाया है. ख़ास तौर से सिविल न्यूक्लियर डील और ईरान के साथ भारत को तेल के व्यापार की छूट. लेकिन अब भारत के सामने असली चुनौती होगी. चुनौती ये होगी कि वो व्यापारिक नीतियों में लगातार बदलाव लाने वाले ट्रंप प्रशासन के साथ ख़ुद को कैसे समायोजित करता है.”
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ये भी सच है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अमरीका और भारत के सम्बन्धों को सुधारने के लिए काफ़ी कोशिशें की और वक़्त लगाया है. मोदी ने कई मौकों पर कहा था कि ओबामा उनके दोस्त हैं और उन्हें ओबामा के साथ काम करना पसंद है लेकिन अभी दुनिया के राजनातिक आयाम बदल गए हैं.”
अमरीकी प्रशासन ने अपने हालिया फ़ैसलों से दुनिया को ये दिखा दिया है कि वो अप्रत्याशित फ़ैसले ले सकते हैं. फिर चाहे वो उत्तर कोरिया के साथ हाथ मिलाना हो, 2015 के पेरिस जलवायु समझौते से ख़ुद को अलग करना हो या ईरान के साथ परमाणु करार से क़दम पीछे खींचना हो.
प्रत्युष राव कहते हैं कि भारतीय राजनयिक अमरीका से बात करते वक़्त इन सभी चौंकाने वाले फ़ैसलों को ज़हन में रखेंगे.
डिफ़ेंस की दुविधा
रक्षा से सम्बन्धित हथियार और उपकरण खरीदने वाला भारत दुनिया का सबसे बड़ा देश है और रूस उसका सबसे बड़ा निर्यातक. सैन्य उपकरण या हथियार, इन सबका बड़ा हिस्सा भारत को रूस से मिलता है.
अमरीका इस समीकरण को बदलना चाहता है. पिछले पांच साल में अमरीका का भारत को निर्यात पांच बार से ज़्यादा मौकों पर बढ़ा है. ये बढ़ोतरी रक्षा उपकरणों और हथियारों के मामले में हुई है. इससे अमरीका के भारत को निर्यात किए जाने वाले रक्षा सौदों में 15 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है.
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वहीं दूसरी तरफ़, स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट के आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच सालों में रूस से भारत के निर्यात में 62-79 फ़ीसदी की गिरावट आई है. हालांकि अतीत में झांका जाए तो अमरीका ने भारत के रूस से हथियार ख़रीदने पर ज़्यादा आपत्ति नहीं जताई है.
प्रत्युष राव कहते हैं, “अमरीका हमेशा से ये मानता रहा है कि दक्षिण एशिया क्षेत्र में चीन का मुकाबला करने के लिए भारत को सामरिक रूप से मज़बूत होने की ज़रूरत है. इसके लिए भले ही भारत को रूस से हथियार क्यों न ख़रीदने पड़े.” लेकिन ट्रंप प्रशासन का रवैया इस मामले में पिछली अमरीकी सरकारों से अलग है.
अभी हाल ही में भारत को रूस से S-400 एयर डिफ़ेंस मिसाइलें खरीदनी थीं और भारत को उम्मीद थी कि अमरीका इस डील को आगे बढ़ाने की मंजूरी देगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
एक वरिष्ठ अमरीकी अधिकारी ने कहा कि भारत को इस सौदे की छूट नहीं दी जा सकती. इसके साथ ही अमरीका ने भारत के रूस की उन कंपनियों के साथ करार का विरोध किया जिन पर उसने पाबंदियां लगा रखी हैं.
‘एशियन एंड पैसिफ़िक सिक्योरिटी अफ़ेयर्स’ के असिस्टेंट सेक्रेटरी (डिफ़ेंस) रैंडल स्राइवर ने कहा, “मैं यहां बैठकर आपको नहीं बता सकता कि भारत को छूट मिलेगी या नहीं. ये फ़ैसला अमरीकी राष्ट्रपति का होगा.”
वहीं भारतीय राजनायिकों ने इस बात के संकेत दिए हैं कि भारत, रूस के साथ की गई डील से पीछे नहीं हटेगा क्योंकि ये भारत के वायु रक्षा प्रणाली के लिए बहुत अहम है.
इसलिए ये हैरानी वाली बात नहीं है कि गुरुवार को होने वाली बैठक में यह मुद्दा एक अहम एजेंडे के तौर पर शामिल है.
इंडियन काउंसिल ऑफ़ वर्ल्ड अफ़ेयर्स में वरिष्ठ विश्लेषक डॉक्टर श्रुति बैनर्जी का मानना है कि दोनों देशों के नेता इसका हल ढूंढने की कोशिश करेंगे.
उन्होंने कहा, “दोनों ही देश इस मुद्दे पर कड़ा रुख अपनाएंगे. हालांकि दोनों के पास इसका हल ढूंढने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. अमरीका और भारत के बीच कुछ मुद्दों को लेकर असहमतियां और संशय ज़रूर हैं, लेकिन भरोसे की कमी नहीं.”
इस वार्ता से कुछ सकारात्मक नतीजों की उम्मीद की जा रही है.
दोनों देश ‘कम्यूनिकेशन्स कंपैटबिलटी एंड सिक्युरिटी अग्रीमंट’ पर हस्ताक्षर के लिए बातचीत आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं. अगर इस डील पर बात बन गई तो दोनों देशों के सेनाओं के बीच संवाद और समन्वय बेहतर हो जाएगा.
ईरान से तेल आयात का मसला
अमरीका साफ़ कह चुका है कि वो भारत के ईरान से कच्चा तेल आयात करने के ख़िलाफ़ है. हालांकि भारत के लिए अमरीका की इस मांग को मानना मुश्किल हो सकता है. डॉक्टर बैनर्जी के मुताबिक भारत ईरान से तेल ख़रीदना बंद करना अफ़ोर्ड नहीं कर सकता.
भारत ने ईरान के चाबहार में बंदरगाह बनाने के लिए 50 करोड़ डॉलर से ज़्यादा का निवेश करने का वादा किया है. इस बंदरगाह से भारत के लिए दूसरे एशियाई देशों तक पहुंचना आसान होगा जिससे भारत के व्यापार में इजाफ़ा होगा.
डॉक्टर बैनर्जी कहती हैं, “ईरान भारत का महत्वपूर्ण रणनीतिक सहयोगी है. ईरान से तेल का आयात बंद करना उसे ख़फ़ा कर सकता है. हां, ये हो सकता है कि भारत आयात किए जाने वाले तेल की मात्रा कम कर दे लेकिन ये भी इस बात पर काफ़ी हद तक निर्भर करेगा कि अमरीका भारत के इस फ़ैसले को कैसे देखता है.”
डॉक्टर बैनर्जी कहती हैं, “भारत अफ़गानिस्तान को सबसे ज़्यादा मदद देने वाले देशों में से है इसलिए ये वहां होने वाली शांति प्रक्रिया में एक अहम भागीदार बनना चाहेगा. इसलिए भारत को यह पसंद नहीं आएगा कि अमरीका उन समूहों से सीधी बातचीत करे जिनके पीछे पाकिस्तान का हाथ है.”
जहां तक व्यापार की बात है तो ये इस वार्ता का प्रमुख एजेंडा नहीं होगा. हालांकि कुछ ज़रूरी मुद्दों पर चर्चा हो सकती है.
अमरीका ने इस साल भारत से आयातित स्टील और एल्युमीनियम के उत्पादों पर टैक्स बढ़ा दिया था. इसके जवाब में भारत ने भी अमरीका के कई उत्पादों पर लगने वाला आयात शुल्क बढ़ा दिया था.